इंसानों की नापुख्तगी को पुख्ता बनाने और उसके वजूद को तरबियत के सांचे में सवारने के लिए जहां रब्बे जलालो जमाल ने जहां ज़ाहिरो बातिन में अक़ल व नबी का इंतज़ाम किया वहीं माज़ी की इबारतों का अज़ीम खज़ाना उसके सामने रख दिया, ताकि माज़ी की यादों को दोहराता जाए और जिंदगी की शाहराह पर अपने मंज़िलों को तय करता जाए।
तक़दीर को संवारना और उसे सजाना सिर्फ माज़ी की यादों के ज़रिए मुमकिन है, यह एक ऐसा मोदर्रिस और उस्ताद है जो अमल को भी दिखाता है और उसके अंजाम को भी, जो ज़ालिम के ज़ुल्म के साथ मज़लूम के सब्र की बेहतरीन नुमाइश पेश करता है। इंसान इस दुनिया में हर चीज़ को झुठला सकता है लेकिन माज़ी की यादें एक ऐसा सच है जिसे वह हरगिज़ नहीं झुठला सकता इसलिए कि उसके दामन में एक ही मक़ाम पर ज़ुल्म और उसका अंजाम, सब्र और उसकी जज़ा, ताअत और उसका इनाम, इसयान और उसकी सज़ा होती है, जो ग़ायब होते हुए हाज़िर और दूर होते हुए बहुत नज़दीक होती है।
इसी मौज़ू की इफ़ादियत और इस मौज़ू पर मुशतमिल किताब दास्ताने रास्तान की अहमियत के पेशे नज़र उसे हुज्जतुल इस्लाम नज़रे इमाम साहब ने फ़ारसी ज़बान से उर्दू ज़बान में निहायत सलासत के साथ तर्जुमा किया और उसे नौजवान नस्लों की सहीह तालीमो तरबियत के लिए पेश किया है।
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